Sunday, October 13, 2013

मौन हुआ जब मन का पंछी


“मने मने थाके” अर्थात please keep quite कितना सुंदर सूत्र है यह, पर हमसे बिना बोले नहीं रहा जाता. हमारी ऊर्जा सबसे अधिक बोलने में ही खर्च होती है. हम बेवजह बोलते हैं, बढ़ा -चढ़ा कर बोलते हैं, कुछ का कुछ बनाकर बोलते हैं तथा अपने अहंकार को पोषने के लिए बोलते हैं. हम ज्यादातर समय सुने हुए को दोहराते हैं अथवा तो बोले हुए को भी दोबारा बोलते हैं. वाणी का यदि सदुपयोग हो तो हमारे वचनों में जान आ जाये, बल आ जाये, सत्य का बल. चुप रहने में ही सबसे बड़ा सुख है, कम बोलने वाला कभी मुसीबत में नहीं फंसता. संतजन भी कहते हैं, जब भीतर ईश्वरीय प्रेम की महक भरी हो तो उसे भीतर ही भीतर जज्ब होने दो, जैसे इत्र का ढक्कन धीरे से खोला जाता है फिर बंद कर दिया जाता है. वैसे ही मुंह का ढक्कन जब जरूरी हो तभी खोलना चाहिए, वरना सारी महक उड़ जाएगी तथा संसार की गंध उसमें भर जाएगी. साधक को विशेष सतर्क रहने की आवश्यकता है.   

6 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति की चर्चा कल सोमवार [14.10.2013]
    चर्चामंच 1398 पर
    कृपया पधार कर अनुग्रहित करें |
    रामनवमी एवं विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाओं सहित
    सादर
    सरिता भाटिया

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  2. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति,विजयादशमी (दशहरा) की हार्दिक शुभकामनाएँ!

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    1. आपको भी शुभकामनायें !

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  3. bahut sundar baat .....vijayadashmi ki shubhkamnayen ....

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    1. अनुपमा जी, स्वागत व आभार !

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