जनवरी २००९
हम स्वयं
को दूसरे के समान नहीं समझ पाते. हम अपने शिखर को अपना सार समझते हैं तथा दूसरे की
खाई को उसका. उसका भी शिखर है और हमारी भी खाई है. जो स्वयं के समान सबको समझेगा,
वह कभी दूसरों का निर्णायक नहीं होगा, वह जान लेता है कि सबके भीतर जो बैठा है वह
सम है. सभी के भीतर वह हीरा छिपा है. यह समता तभी प्राप्त होती है जब हम निंदा में
रस लेना त्याग देते हैं. अहंकार कभी यह मानने को तैयार नहीं होता कि कोई अन्य उससे
बढ़कर भी हो सकता है. अहंकार सदा इस आशा में रहता है कि कब कोई उसे कहे कि तुम सबसे
महान हो ! हमारे दुःख का कारण यही है कि हम दूसरों का अपमान करने को राजी हो जाते
हैं. हम निकटतम के साथ भी दूरी रखते हैं. उससे स्वयं को ऊपर रखते हैं. जब भी हम
दूसरों के बारे में कुछ सोचें अपने को सामने रखकर ही सोचें. क्योंकि जैसा हम महसूस
करेंगे वैसा ही दूसरे भी महसूस करते हैं
आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः ।
ReplyDeleteआप बिल्कुल सही कह रही हैं ।