फरवरी २००९
हमारी नजर
दूसरों के दोषों पर रहती है, जिससे अपने दोष नहीं दीखते. सद्गुरु कहते हैं, हम
अपना अवलोकन करें जैसे कोई रास्ते के किनारे खड़ा होकर तटस्थ भाव से भीड़ को देखता
है. हम न्यायाधीश न बनें, साक्षी बने रहें और हमारी तटस्थता से देखने से पता चलता
है कि हम अपने कृत्यों से अलग हैं, हम कर्ता नहीं हैं, यही मुक्ति का द्वार है. जो
अपने शुभ कर्मों से बंधा है, वह अशुभ से भी बंधा रहेगा. जिसने पुण्य का फल चाहा वह
पाप के फल से बंधा ही रहेगा. राग-द्वेष से मुक्त मन ही साक्षी बन सकता है. साक्षी
की सुवास टिकी रहे तो दिन भर मुदिता बनी रहती है. परमात्मा भीतर ही है, हृदय
परमात्मा का है पर बुद्धि समाज द्वारा दी गयी है. प्रार्थना हृदय से उतरती है तो
सीधे परमात्मा तक पहुंचती है. वह अनवरत प्रतीक्षारत है, हम ही नजरें बचा लेते हैं.
बहुत सुंदर और सार्थक बात अनीता जी !!
ReplyDeleteस्वागत व आभार अनुपमा जी
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