हमारे भीतर
परमात्मा पल रहा है, जिसके अंतर में एक बार भी परमात्मा के लिए प्रेम जगा है मानो
उसने उसे धारण कर लिया, अब जब तक परमात्मा बाहर प्रकट नहीं हो सकेगा, हम चैन से
नहीं बैठ सकेंगे. हमारा दुःख इसलिए नहीं है कि हम उससे दूर हैं वरन इसलिए कि वह
भीतर ही है और हम उसे खिलने नहीं दे पा रहे. कली जो फूल बनना चाहती है पर बन नहीं
पाती, कितनी पीड़ा झेलती होगी. हम भी जो अहंकार, मान, मोह, लोभ और कामनाओं द्वारा
दंश खाते हैं इसलिए कि आनंद, प्रेम, शांति और सुख जो भीतर ही हैं, पर ढक गये हैं,
लेकिन एक गर्भिणी स्त्री जिस तरह अपने बच्चे की रक्षा करती है वैसे ही हमें अपने
भीतर उस ज्योति की रक्षा करनी है, एक न एक दिन उसे जन्म देना ही है. हमारी चाल-ढाल,
रहन-सहन खान-पान ऐसा होना चाहिए मानो एक कोमल निष्पाप शिशु हमारे साथ-साथ
जगता-सोता है, हमारी भाषा हमारे विचार ऐसे हों कि उसे चोट न पहुंचे क्योंकि उसका
निवास तो मन में है. भीतर जो कभी-कभी असीम शांति का अनुभव होता है वह उसी की कृपा
है और वह परमात्मा हमें चुपचाप देखा करता है हमारे एक-एक पल की खबर रखता है. वह
स्वयं बाहर आना चाहता है पर हमारी तैयारी ही नहीं है, उसका तेज सह पाने की तैयारी
तो होनी ही चाहिए. वह भीतर से आवाज लगाता है, कभी हम सुनते हैं कभी दुनिया के
शोरगुल में वह आवाज छुप जाती है.
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