जनवरी 2009
जिसके भीतर
अस्तित्त्व उतरता है, उसके भीतर फूल खिलते हैं, महोत्सव उतर आता है. ऐसे अपूर्व
महोत्सव से कोई बुद्ध बरसने निकल पड़ता है, महावीर बांटने को निकल पड़ता है. उसकी
नजर दूसरे पर नहीं, वह भीतर अपने केंद्र पर टिका है. वह जान लेता है, दूसरों को न
तो सुख दे सकते हैं न दुःख दे सकते हैं. दूसरों पर साधक की नजर रहती ही नहीं, वह
तो अपने होने को साधता है, वह करने न करने से ऊपर उठ जाता है.
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