फरवरी २००९
मनुष्य सुखी
होने के बजाय, खाली होने की बजाय भरा होना ज्यादा पसंद करता है. चाहे वह दुःख से
क्यों न भरा हो. दुःख न हो तो मनुष्य काल्पनिक दुःख पैदा करता है. अहंकार दुःख पर
ही जीवित रहता है, दुःख ही उसका भोजन है, ‘मैं’ टिका ही दुःख पर है, छोटे-मोटे
दुःख से उसका काम नहीं चलता, वह बढ़ा-चढ़ा कर दुःख को व्यक्त करता है. वह खुद ही
दुःख बनाता है. सुखी के सब दुश्मन हो जाते हैं, दुखी के साथ सब सहानुभूति व्यक्त
करते हैं.
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