१८ मई २०१८
‘जीवन प्रतिपल बदल रहा है, इस जगत में सब कुछ अनित्य है, जीवन
क्षण भंगुर है, यहाँ सब कुछ अस्थायी है, यह जीवन एक सराय की तरह है, इसमें सदा
नहीं रहना है, एक पुल की तरह है, जिसे पार करना है और निकल जाना है, पुलों पर कोई
घर नहीं बनाता’. ये सभी वाक्य अथवा इनमें से कोई न कोई वाक्य हमने सुने हैं, सुनते
ही रहते हैं. इन वाक्यों का शाब्दिक अर्थ भले ही हमने समझ लिया हो पर अनुभवगत अर्थ
अभी तक नहीं समझा है. देह को नित्य ही बदलते हुए हम देखते हैं, कहाँ बचपन की सुकोमल
देह, युवावस्था की सुदृढ़ देह और फिर वृद्धावस्था की अशक्त देह. सुबह से शाम तक मन
भी बदलता है, समय के साथ भावनाएं बदलती हैं. स्थिर लगने वाले पर्वत भी बदलते हैं.
धरती भी करवट लेती है, सूर्य के ताप में भी अंतर आता है. इस जगत में कोई ऐसी वस्तु
नहीं जो निरंतर बदल न रही हो. इस सारे बदलाव के पीछे एक अबदल है जो कभी नहीं
बदलता, किसी वृद्ध को सभी ने कभी न कभी कहते सुना है, मुझे नहीं लगता मैं बूढ़ा हो
गया हूँ, किसी को भी अपने वृद्ध होने का अहसास भीतर से नहीं होता, देह को देखकर
अथवा आस-पास के बच्चों को बड़ा हुआ देखकर ही उसे लगता है, वह अब युवा नहीं है. हरेक
के भीतर एक ऐसी सत्ता है जो कभी नहीं बदलती, उसे ही आत्मा कहते हैं. परिवर्तनशील जगत
के पीछे भी एक ऐसी सत्ता है जो सदा एक सी है. उसे ही परमात्मा कहते हैं. ध्यान में
ही उसका अनुभव किया जा सकता है. उसमें टिककर इस बदलने वाले संसार से अछूता रहा जा
सकता है, इसे ही जलकमलवत् जीवन कहते
हैं. यही एक साधक का लक्ष्य है, सम्भवतः यही हर जागरूक मानव का भी लक्ष्य है.
बदलाव प्रकृति का नियम है और प्रकृति परमात्मा.
ReplyDeleteसार्थक लेख.
हाथ पकडती है और कहती है ये बाब ना रख (गजल 4)
स्वागत व आभार रोहितास जी !
Deleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन अंतरराष्ट्रीय संग्रहालय दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार हर्षवर्धन !
Deleteसत्य कहा
ReplyDeleteस्वागत व आभार रश्मि जी !
Deleteआध्यात्मिक सुंदर लेख स्थूल से सूक्ष्म की और गमन ही सही पहचान है आत्मा की।
ReplyDeleteस्वागत व आभार कुसुम जी !
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