२२ मई २०१८
महात्मा गाँधी के प्रसिद्ध वचन हैं, ख़ुशी तब मिलेगी जब आप जो सोचते
हैं, जो कहते हैं और जो करते हैं, तीनों में सामंजस्य हो. मन और वाणी एक दूसरे के
विपरीत न हों, हमारे वचन और कर्म भी एक दूसरे की गवाही बनें. किन्तु अक्सर ऐसा
होता है कि भाव शुद्ध होते हुए भी वाणी कठोर हो जाती है, अथवा वाणी अत्यंत मधुर
है, मानो शहद में डूबी हो, पर कर्म स्वार्थ से भरे होते हैं. जब तक ऐसा है, ख़ुशी
टिकने वाली नहीं है. साधक को तो अति सजग रहना होगा, उसका आचरण परमार्थ के लिए हो,
वाणी में कोई दोष न हो, और भाव पवित्र हों. परमात्मा के पथ का जो राही है, उसे यदि
स्वयं के कुशल-क्षेम की चिंता स्वयं ही करनी है तो उसकी श्रद्धा सच्ची नहीं. उसे भी
यदि सम्मान पाने की आकांक्षा है तो उसने परमात्मा को सर्वोत्तम माना ही नहीं. कबीर
दास ने कहा है, जो शीश कटाने को तैयार हो वही इस पथ पर चल सकता है. स्वयं को बचाते
हुए बल्कि और भी सजाते हुए इस पथ पर नहीं
चला जा सकता. निष्कामता और निस्वार्थता साधे बिना अनंत के द्वार तक नहीं पहुंचा जा
सकता.
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