Sunday, April 4, 2021

जब आवै संतोष धन

 कर्म ही वह बीज है, जो हम प्रतिपल मन की माटी में बोते हैं, सुख-दूख रूपी फल उसी से उत्पन्न वृक्ष में लगते हैं. मनसा वाचा कर्मणा जो भी हम कर रहे हैं, उनके द्वारा हम हर घड़ी अपने भाग्य का निर्माण कर रहे हैं. कर्म करने की शक्ति हरेक के भीतर निहित है, इसे भूलकर यदि कोई भाग्य के सहारे बैठा रहेगा तो उसे कौन समझा  सकता है. हर व्यक्ति कुछ न कुछ देने की क्षमता रखता है, हरेक के भीतर कोई न कोई योग्यता, विशेषता रहती है, जिसके द्वारा वह समाज का कुछ भला कर सकता है, उसे न देकर यदि हम सदा कुछ न कुछ मांगते ही रहेंगे तो अपनी शक्तियों का प्रयोग नहीं करेंगे और एक दिन उन्हें भूल ही जायेंगे. यदि देने का भाव किसी के भीतर जगे तो अल्पहीनता का भाव अपने आप मिट जाता है. इसके बाद ही मन में सन्तोष का जन्म होता है और तब बिना मांगे ही अस्तित्त्व की कृपा का अनुभव होने लगता है. मन स्वतः ही परम के प्रति झुक जाता है और तब हर कर्म से उसकी ही पूजा होती है, ऐसा अनुभव होता है. मानव को ईश्वर की दया दृष्टि की कामना नहीं करनी है, वह तो सदा ही मिल रही है, बस हमें अपनी दृष्टि में परिवर्तन करना है जो अभी अपने कर्मों से केवल अपने सुख की मांग करती है. 


2 comments:

  1. वाह !अनमोल लेख अनीता जी | इंसान यही सब जीवन में अपना ले सारे दर्द मिट जाएँ | सादर

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  2. स्वागत व आभार रेणु जी!

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