Tuesday, November 19, 2013

भाव शुद्धि सत्व शुद्धि....

अप्रैल २००५ 
संचित कर्म, प्रारब्ध कर्म तथा क्रियमाण कर्म, ये तीन प्रकार के कर्म हैं जो जीव के साथ सदा रहते हैं जब तक उसे भगवद् प्राप्ति न हो जाये. संचित कर्म वे हैं जो हमने जन्मों-जन्मों में एकत्र किये हैं, उन्हीं में से कुछ कर्मों को प्रारब्ध बनाकर हम इस दुनिया में भेजे जाते हैं, क्रियमाण वे कर्म हैं जो जन्म से मृत्यु तक हम अपनी इच्छा से करते हैं. इन कर्मों को करते हुए हम पुनः संचित कर्म एकत्र करते जाते हैं. किसी कार्य को करते समय हमारी भावना जैसी होगि वही उसका वास्तविक रूप होगा, बाहरी रूप से चाहे हम कितना भी अच्छा व्यवहार दिखाएँ पर यदि भावना बिगड़ी हुई है तो हमारा कर्म अशुद्ध ही माना जायेगा. भीतर का भाव बिगड़ते ही हम स्वयं को कर्म बंधन में बांध लेते हैं. बाहर तो परिणाम नजर आता है कारण भीतर होता है. परिणाम तो नष्ट हो जाता है पर कारण बीजरूप में बना रहता है, फिर वह प्रारब्ध कर्म बन कर कभी भी आ सकता है. हम क्रियमाण कर्मों को करने में स्वतंत्र हैं, अपने मन, बुद्धि, विचारों, भावनाओं तथा वाणी को पवित्र रखने में स्वतंत्र हैं, हम अपने भाग्य के निर्माता स्वयं हैं.  सजग व्यक्ति कभी भी खुद को कर्म बंधन में नहीं बांधते. जब हमारा लक्ष्य मुक्ति है तो अपने ही हाथों स्वयं को क्यों बाँधें.  

4 comments:

  1. जब हमारा लक्ष्य मुक्ति है तो अपने ही हाथों स्वयं को क्यों बाँधें. बहुत सही कहा आपने ...

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  2. " कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।" हे अर्जुन कर्म पर तेरा अधिकार है , फल पर नहीं ।

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  3. इसी सब के चलते कल जिस पार्टी की हाई कमान दुर्गा कहाती थी आज बकरी मेमना कहाती है। चौटाला जैसे कई जेल में है। शुक्रिया आपकी टिप्पणियों का।

    सुन्दर व्याख्या संचित ,प्रारब्ध ,क्रियमाण कर्म की। सदविचार।

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  4. सदा जी, शकुंतला जी व वीरू भाई आप सभी का स्वागत व आभार !

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