Monday, October 13, 2014

जिन डूबा तिन पाइयां

मार्च २०१४ 
हमारे चारों ओर धूप है, प्रकाश है, हवा है, आकाश है...हम डूब सकते हैं इन नेमतों के सागर में. सत्य की महक ने हमें निमन्त्रण दिया है. परमात्मा ने इस जगत को आनन्द के लिए ही बनाया है, हम आनन्द की तलाश में निकलते जरूर हैं पर रास्ते में ही भटक जाते हैं. एक शिशु अपनी मस्ती में नाचता है, गाता है, खेलता है वह आनन्द की ही चाह है. आनन्द बिखेरो तो और आनन्द मिलता है जैसे प्रकाश फैलाओ तो बढ़ता है. वही बच्चा जब धीरे धीरे बड़ा होने लगता है सहजता खोने लगता है, और तब अपने भीतर का द्वार भी भूलने लगता है. कभी शरम, डर या क्रोध और कभी शिष्टाचार की दीवार उसे भीतर जाने से रोकती है और वह ख़ुशी के लिए बाहरी वस्तुओं पर निर्भर होने लगता है. वस्तुओं का जो ढेर उसके आस-पास बढ़ता जाता है उसके भीतर भी एकत्र होने लगता है. साधक उस ढेर को समर्पित करके खाली हो जाता है और परमात्मा का रस बरस जाता है. 

3 comments:

  1. वह परमात्मा आनन्द - घन है । तृप्ति वहीं सबको मिलती है ।
    सुन्दर रचना ।

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर विचार। दरअसल आनंद भगवान का एक नाम है। और आत्मा परमात्मा का अंश है इसीलिए आत्मा का स्वभाव ही आनंद की खोज है लेकिन जीवात्मा इस शरीर में आजाने पर बॉडी -माइंड -इंटेलेक्ट त्रिपुटी को ही सेल्फ मान लेता है। फाइनाइट मान लेता है ऐसे में सीमित से सीमित ही प्राप्त होता है जब की आत्मा असीम लिमिटलैस आनंद चाहता है जो उसका स्वभाव है।

    ReplyDelete
  3. शकुंतला जी व वीरू भाई, बिल्कुल सही कहा है आपने...स्वागत व आभार !

    ReplyDelete