मार्च २००७
परम सत्य की प्राप्ति का
कोई भी मार्ग हो तो उसका अंत भक्ति में ही होता है, अर्थात ज्ञान का फल भी भक्ति
है और कर्मयोग का फल भी भक्ति ही है. भक्ति स्वयं ही साधन है और स्वयं ही साध्य
भी. भक्ति का अर्थ है सत्य से प्रेम...परम से प्रेम ! विष्णु की भक्ति करें या राम
की, शंकर की अथवा कृष्ण की, सभी एक को ही पहुँचती है. यदि कोई अनपढ़ हो, शास्त्र न
पढ़ सकता हो या समझ सकता हो, स्तुति न गा सकता हो, वह एक बात तो कर ही सकता है. वह
ईश्वर से प्रेम कर सकता है. उसके किसी भी नाम को भज सकता है. उसको स्मरण कर सकता
है. उसका प्रेम ही उसको तार देगा.
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