मार्च २००७
उपवास
का अर्थ है निकट बैठना, उसके निकट जो भीतर है, प्रकाश, पावनता, सत्य और दिव्यता का
जो स्रोत है. यानि हमारी आत्मा ! उसके पार ही तो परमात्मा है. मानव होने का जो
सर्वोत्तम लाभ है वह यही कि वह स्वयं को जाने, जिसे जानने के बाद यह सारा जगत होते
हुए भी नहीं रहता. साधक सभी कुछ करता है पर भीतर से बिलकुल अछूता रहते हुए. सब
नाटक सा लगता है, कुछ भी असर नहीं करता. वह इन छोटी-छोटी बातों से ऊपर उठ जाता है.
जीना तब सहज होता है, कोई अपेक्षा नहीं, कुछ पाना नहीं, कुछ जानना भी नहीं. कहीं
जाना भी नहीं, कहीं से आना भी नहीं. खेल करना है बस. जगना, सोना, खाना, पीना सब
कुछ खेल ही हो जाता है. परमात्मा जो कभी दूर-दूर लगता था अपने सबसे करीब हो जाता
है. वही अब खुद की याद दिलाता है. जो जन्मों से सोया हुआ था वह जाग जाता है.
शास्त्र घटित होते हुए लगते हैं, उनकी बातें अक्षरशः सही लगती हैं. ऐसी मस्ती और
तृप्ति में कोई नाचता है तो कोई हँसता है, कोई मुस्कुराता भर है !
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