मार्च २०१४
“कौन यहाँ आंसू पोंछेगा, हर दामन भीगा
लगता है” इस जगत से हम उम्मीद रखें कि हमारे दुःख को मिटाएगा तो यह वैसे ही होगा
जैसे बालू से तेल निकालना, क्योंकि दुःख जगत ने हमें दिया ही नहीं है यह हमारी ही
अज्ञानता से उत्पन्न हुआ है. इसी तरह सुख भी जो बाहर से मिलता हुआ प्रतीत होता है
वास्तव में हमने ही उसे उत्पन्न किया है. जब हम इस बात को स्वीकारते हैं तब जगत से सुख पाने की दौड़ समाप्त
हो जाती है, बल्कि तब तो दुःख भी नहीं रहता. दुःख तभी तक है जब तक हम अहंकार से
ग्रसित हैं. अहंकार का भोजन है दुःख. तभी तक है जब तक जो अपना नहीं है हम उसे अपना
मानते हैं, यही मोह है, अज्ञान ही मोह का कारण है.
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (17.10.2014) को "नारी-शक्ति" (चर्चा अंक-1769)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार राजेन्द्र जी
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