Monday, November 19, 2018

अलख, निरंजन, भव भय भंजन


२० नवम्बर २०१८ 
संत कहते हैं परमात्मा ही जगत के रूप में दिखाई देता है, और वह उससे परे भी है. इसी प्रकार हम देह, मन, बुद्धि आदि के माध्यम से व्यक्त होते हैं पर उससे परे भी हैं, अपने उस सहज आनंद स्वरूप को जानना ही साधना का लक्ष्य है. स्वयं के असंग, निरंजन, निर्विकार स्वरूप को जानकर ही संत जगत में रहते हुए भी अलिप्त दिखाई देते हैं. वह प्रकृति के गुणों से प्रभावित नहीं होते बल्कि प्रकृति के नियंता बन जाते हैं. साधक का जब अपने मन, बुद्धि अदि पर नियन्त्रण होता है वह जगत के सुख-दुःख आदि से प्रभावित नहीं होता. जीवन जिस क्षण जैसा उसके सम्मुख आता है, उसे सहज स्वीकार करके वह इस जगत से वैसे ही निकल जाता है जैसे मक्खन से बाल. कमल के पत्तों पर पड़ी पानी की बूंद जैसे उसे भिगो नहीं सकती, साधक को स्वयं के उसी स्वरूप में स्थित होना है.

2 comments:

  1. आपदाम्-अपहर्तारम् दातारं सर्व संपदां।
    लोकाभिरामं श्रीरामम्  भूयो भूयो नमाम्यहम् ॥

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  2. स्वागत व आभार अशोक जी !

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