Wednesday, January 29, 2014

प्रेम ही पूजा प्रेम ही अर्चन

जुलाई २००५ 
ध्यान प्रार्थना की पराकाष्ठा है, जिस प्रभु को हम अपने से दूर मानकर उसकी पूजा करते हैं, ध्यान में वही हमारे भीतर उतर आता है. ऐसे तो वह सदा से वहीं है पर हमें इसका ज्ञान नहीं है. ध्यान में उससे थोड़ी सी भी दूरी नहीं रह जाती. उसके और हमारे बीच की दूरी केवल मन द्वारा मानी हुई है. मन में संकल्प-विकल्प न रहें तो जो बचता है वह वही है. वह सागर है तो हम उसकी लहरें. वह है तो हम हैं, वही हम हुए हैं इसकी अनुभूति जब भीतर जगती है तो प्रेम जगता है. शुद्ध प्रेम जब उतरता है तो उसका कोई लक्ष्य नहीं होता वह सभी के लिए होता है बिना किसी भेदभाव के. चेतन-अचेतन सभी प्राणियों, वस्तुओं के लिए. इस सृष्टि में सब कुछ प्रेम से ही उपजा है, जो भी विकृति यहाँ दिखाई देती है , वह प्रेम में आई विकृति है. हमें पुनः शुद्ध प्रेम को जगाना है, जो स्वयं में इतना परिपूर्ण है कि उसकी सारी शर्तें खो जाती हैं. पूर्ण में यदि कुछ जुड़े तो भी पूर्ण ही रहेगा और कुछ घटे तब भी, परमात्मा ऐसा ही पूर्ण प्रेम है. 

5 comments:

  1. सुन्दर ... ध्यान ईश्वर को आत्मसात करने की प्रक्रिया है ...

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  2. शुद्ध प्रेम जब उतरता है तो उसका कोई लक्ष्य नहीं होता वह सभी के लिए होता है बिना किसी भेदभाव के. ......

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  3. सुन्दर है। उसका हमारे हृदय में ही वास है हैम उसकी तरफ पीठ किये रहते हैं वह हमारे सारे क्रिया कलाप का चिठ्ठा लिखता रहता है।

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  4. प्रेम ही परमेश्वर है ।

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  5. दिगम्बर जी, राहुल जी, वीरू भाई व शकुंतला जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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