जुलाई २००५
प्रत्यक्ष
ज्ञान ही प्रज्ञा है और ऐसी समाधि जो प्रज्ञा की ओर ले जाये वही सम्यक समाधि है.
कभी-कभी ध्यान में हमें ऐसे अनुभव होते हैं, जिनका वर्तमान जीवन से कोई सम्बन्ध
नहीं होता, सम्भवतः वे हमारे पूर्व जीवन
से सम्बन्धित होते हैं, तब ज्ञान होता है कि इस शरीर से कैसा मोह, न जाने कितने
शरीर हम धारण कर चुके हैं, हर बार वही कहानी दोहराई जाती रही है, बस अब और नहीं,
अब और इस झूले में नहीं बैठना जिसका एक सिरा ऊपर जन्म फिर नीचे मृत्यु की ओर ले
जाता है. अब स्वयं को जानकर उसमें स्थित होना है, संतजन कहते हैं, पलक झपकने में
देर लग सकती है पर अपने स्वरूप में स्थित होने में उतनी भी देर नहीं लगती. साधना
के द्वारा हम अपने स्वरूप की झलक तो पा ही लेते हैं, पर यह स्थिति सदा बनी नहीं
रहती, क्योंकि जब तक अहंकार शेष है पर्दा बना ही रहेगा.
एक सतत प्रयास चाहिए ....अपने आप से जुडने के लिए ....बहुत सुंदर बात अनीता जी ...!!
ReplyDeleteअनुपमा जी, सचमुच सतत साधना चाहिए
Deleteसुन्दर प्रस्तुति...
ReplyDeleteअब करो स्वांश ध्यान कृष्ण के स्वरूप के अंश की आराधना (रूप ध्यान ,मैडिटेशन आफ फ़ार्म )
ReplyDeleteसुंदर संदेश..आभार !
Deleteकृष्ण के चरणारविन्द की शरण में जाने के लिए आदर्श स्थिति है सम्बन्धों की आंच का नार्थ पोल बन जाना। आवाजाही से देहांतरण से मुक्ति का भी यही साधन है :कृष्ण- भक्ति।
ReplyDeleteसही कहा है
Deleteअपने आप को पहचानने और स्व में स्थित होने का प्रयास अनवरत जारी रहना चाहिए...
ReplyDeleteकैलाश जी, यही परम लक्ष्य है
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