अप्रैल २००८
हमें स्मृति
के साथ-साथ धृति का विकास करना है. धृतिं का अर्थ है धारणा, धैर्य ! यह मन की
क्रिया है, मन के टिकने की क्रिया. एक वस्तु पर टिककर यदि मन का चिन्तन चले तो मन
का समाधान हो जाता है. धारणा दृढ़ होना साधक के लिए अति आवश्यक है. सहनशक्ति की कमी
से ही हम जगत में दोष देखते हैं. यदि किसी में दोष दिख भी रहे हों फिर भी उसे
निर्दोष देखना होगा क्योंकि अपने दृष्टिकोण से वह सही है. खुद को सही मान रहा है.
साधक को आग्रह शील नहीं होना है. इस जीवन में सभी को अपनी यात्रा अपने ढंग से करनी
है. कोई जिन आदर्शों का पालन सहज रूप से करता है या करना चाहता है, हो सकता है
अन्यों के लिए वे निरे व्यर्थ हों या अति कठिन हों या उन्होंने उनके बारे में कभी
सोचा भी न हो, तो किसी को कोई हक नहीं कि अन्यों को भी वैसा करने पर बाध्य करे,
शुद्ध चेतना कभी आग्रह नहीं करती, वह सबका सम्मान करती है, वह सारे जगत को निर्दोष
देखती है. वह अपना मत थोपती नहीं.
शुद्ध चेतना कभी आग्रह नहीं करती, वह सबका अम्मान करती है, वह सारे जगत को निर्दोष देखती है.
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