कृष्ण कहते
हैं, सुख-दुःख, गर्मी-सर्दी इन्द्रियों द्वारा अनुभव किये जाते हैं. आत्मा पर इनका
असर नहीं होता. पर हमारा अनुभव है कि जैसे ही कोई नकारात्मक भाव जगता है, भीतर तक
सब तपने लगने लगता है. ध्यान में जाते ही यह तल्खी समाप्त हो जाती है. संस्कारों
के वशीभूत होकर ही ऐसा होता है. मुक्त आत्मा तो प्रेम व शांति से भरी है. जब भी
भीतर असहजता का अनुभव हो तो यह पाप है. जब भी भीतर दुःख हो, क्रोध हो तो अहंकार ही इसका कारण है. जब भीतर शांति हो, सुख हो, प्रेम हो तो मानना होगा कि आत्मा में स्थिति है. जब भीतर ताप होता है तो देह की कोशिकाओं पर इसका असर होता है.
चेहरे पर क्रोध के भाव जितनी बार भी पड़ते हैं, अपनी छाप छोड़ते चले जाते हैं. तभी
तो संतों का मुखड़ा कितना प्यारा लगता है और अहंकार से भरा व्यक्ति दुखी प्रतीत
होता है.
सत्संगति से सब मिलता है । बोध - गम्य - रचना । बधाई ।
ReplyDeleteसही कहा है, शकुंतला जी, स्वागत व आभार
ReplyDeleteअहंकार ही जड़ है बुद्धि का विकृत रूप जो है जो जीव को बांधता है बंधन में
ReplyDeleteमुक्त आत्मा तो प्रेम व शांति से भरी है...
ReplyDeleteस्वागत व आभार, वीरू भाई व राहुल जी
ReplyDelete