८ अगस्त २०१७
योग का एक अर्थ है कर्मों को इस कुशलता से करना कि कर्म
के बाद न तो पश्चाताप रह जाये कि इससे अच्छा कर सकते थे न ही कोई आशंका ही शेष रहे
कि पता नहीं इस कर्म का फल कैसा होगा. कर्म करने के पूर्व जिस सहज स्थिति में मन
था उसी में बाद में भी रहे तो कर्मयोग सिद्ध हो जाता है. अपरिग्रह योग की साधना में अति आवश्यक यम है. अपरिग्रह
का शाब्दिक अर्थ है अनावश्यक संग्रह न करना, यह संग्रह वस्तुओं का हो सकता है,
संबंधों का हो सकता है और विचारों का भी हो सकता है. व्यक्ति, वस्तु या विचार के
प्रति आसक्ति या मोह की भावना ही परिग्रह है, जो दुख का कारण है. परिग्रह कृपणता
को जन्म देता है और अपरिग्रह साधक को उदार बनाता है. मन यदि व्यर्थ के विचारों से
भरा हुआ है तो चिंता और दुःख से कैसे बचा जा सकता है. योग की साधना करते-करते जब
मन व्यर्थ तथा क्लिष्ट संस्कारों से मुक्त हो जाता है तो सहज ही अपरिग्रह सधने
लगता है.
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