हमारी
देह एक किराये के मकान की तरह है, हम जितने दिन, महीने अथवा वर्ष इस मकान में रहते
हैं, हमें इसका किराया देना पड़ता है, वह है इसका रख-रखाव, पोषण तथा रक्षा आदि. हम
जब इस जगत में रहते हैं तो सुने हुए को अपने स्वार्थ के अनुसार ढाल लेते हैं, हम
किसी बात को वह जिस रूप में कही गयी है उसी रूप में समझ लें तो हमारी देह जल्दी
हमारा साथ नहीं छोड़ेगी, बीमार नहीं होगी. आराम, विश्राम तथा काम तीनो का संतुलन भी
हमें बनाना होगा तभी यह देह रूपी मकान हमारे लिए सुरक्षित है, तब तक, जब तक हम
इसमें रहकर अपने उद्देश्य को प्राप्त नहीं होते. हमारे जीवन का उद्देश्य स्वयं को
जानना है, हमारे सारे पुरुषार्थ उसी की ओर ले जाने वाले हैं. सारे सन्त, शास्त्र
उसी की ओर जाने का इशारा कर रहे हैं. निजी इन्द्रिय सुख का जीवन बहुत जी लिया उससे
सिवाय दुःख तथा रोग के कुछ भी प्राप्त नहीं होता है, अब तो जीवन को एक उत्सव बनाना
है, एक खेल ! जिसके हृदय में देह तथा आत्मा की भिन्नता स्पष्ट है वह सुरक्षित है,
तृप्त है, पूर्ण है, आनन्द से भरा है तथा परमात्मा के साथ है. परमात्मा को तर्क से
नहीं जाना जा सकता वह श्रद्धा की वस्तु है, अंतर श्रद्धावान हो तो देह बाधक नहीं
बनती, देह भी तब शिवालय बन जाती है.
काफी उम्दा रचना....बधाई...
ReplyDeleteनयी रचना
"जिंदगी की पतंग"
आभार
घर का मालिक तो आत्मा है । प्रशंसनीय प्रस्तुति ।
ReplyDeleteपरमात्मा को तर्क से नहीं जाना जा सकता वह श्रद्धा की वस्तु है, अंतर श्रद्धावान हो तो देह बाधक नहीं बनती, देह भी तब शिवालय बन जाती है.
ReplyDeleteकितनी सुंदर बात .....आभार अनीता जी ।