जुलाई २००७
परमात्मा
का मिलना कठिन नहीं है, जो वस्तु हमारे पीछे है उसको देखने के लिए कहीं जाना नहीं
है, बल्कि उसके सम्मुख होने की आवश्यकता है. हम अनुष्ठान, जप, तप आदि के द्वारा
उसे पाना चाहते हैं, पर सद्गुरु हमें अहंकार तजने की कला सिखाते हैं, शरणागत होना
सिखाते हैं और भीतर ही वह प्रकट हो जाता है जो सदा से ही वहाँ था. वह आत्मा के
प्रदेश में हमारा प्रवेश करा देते हैं. आत्मा के रूप में परमात्मा सदा मन को
सम्भाले रहता है, उसे रोकता है, टोकता है और परमात्मा के आनंद को पाने योग्य बनाता
है, उसको पाने के बाद कुछ पाना शेष नहीं रहता. वह सुह्रद है, हितैषी है, वह नितांत
गोपनीय है उसे गूंगे का गुड़ इसीलिए कहा गया है. वह आनंद जो साधक को मिलता है सभी
को मिले ऐसे प्रेरणा भी तब भीतर वही जगाता है.
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