जून २००७
अद्वैत
का अनुभव ध्यान में होता है जब आत्मा और परमात्मा के मध्य कोई अंतर नहीं रहता,
दोनों एक हो जाते हैं. जीवात्मा के रूप में हम मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार के साथ
होते हैं, तब हम परमात्मा के अंश हैं. जब हम चिन्तन-मनन करते हैं अथवा मौन रहते
हैं तब द्वैत होता है. मन लहर है तो आत्मा सागर है, मन बादल है तो आत्मा आकाश है.
व्यवहार काल में हम उस परमात्मा के दास हैं. वह साकार भी है और निराकार भी. उसकी
मूर्ति भी उसका साकार रूप है और उसकी बनाई ये चलती-फिरती मानव मूर्तियाँ भी. हमारा
कर्त्तव्य है इन्हें किसी भी प्रकार का दुःख न देना. सेवक को अपना सुख-दुःख नहीं
देखना है, उसका अहंकार भी मृत हो गया है, क्योंकि वह तो परमात्मा का अंश है. ऐसा
हमें हर पल स्मरण रहे तो सदा हम परमात्मा के साथ हैं !
ये सारा जगत सारी कायनात उसी की अभिव्यक्ति है। सृष्टि ईश्वर से भिन्न नहीं है भले उसकी अपरा शक्ति का खेला है मात्र प्रतीति है। पर जो कुछ भी है ,जिसका अस्तित्व है वह ईश्वर ही है उससे प्रेम करना ईश्वर भक्ति ही है ,सुन्दर पोस्ट।
ReplyDeleteपरमात्मा ही परममित्र है शुभ - चिन्तक है सखा हमारा ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना । बधाई , अनिता जी !
वीरू भाई व शकुंतला जी, स्वागत व आभार !
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