जून २००७
“किससे नजर मिलाऊँ तुझे देखने के बाद”
जिसे एक बार अपने भीतर उस आनंद की झलक मिल जाये, वह खुद को ही भूल जाता है, संसार
की तो बात ही और है. कवि कहता है, “अपना पता न पाऊं तुझे देखने के बाद” और ऐसा मन
स्वालम्बी होता है, वह एक का शैदाई होता है, उसे जो चाहिए उसके लिए वह अपने ही दिल
का द्वार खटखटाता है, वह जो चाहता है वह भीतर ही मिल जाता है. वह अनुभव अनोखा है,
वह इस ब्रह्मांड की सबसे कीमती शै है !
उसकी नज़र के बाद क्या ज़रुरत किसी और नज़र की...
ReplyDeleteस्वागत व आभार कैलाश जी...
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