जून २००७
साधक
को कभी भी संतोषी नहीं होना चाहिए. कभी-कभी ऐसा होता है जिस अनुभव को वह उच्च
मानता है वह तो भूमिका से भी पूर्व की स्थिति होती है. भीतर इतने द्वंद्व होते हुए
भी कोई स्वयं को ज्ञानी मानने की भूल कर सकता है. आनंद और शांति की प्राप्ति ही
साधक का लक्ष्य नहीं है, बल्कि मन को सारे द्वन्द्वों से मुक्त करना है. मन, वाणी
तथा कर्म से कोई ऐसा कृत्य न हो जिससे स्वयं को या किसी अन्य को रंचमात्र भी दुःख
पहुँचे. करुणा, मुदिता, स्नेह तथा उपेक्षा इन चारों में से परिस्थिति के अनुसार
किसी एक का प्रयोग करके हम मुक्त रह सकते हैं. अपने से श्रेष्ठ को देखकर मुदिता,
हीन को देखकर करुणा, दुष्ट के प्रति उपेक्षा तथा समान के प्रति स्नेह, यही व्यवहार
का आधार होना चाहिये. हरेक को यह जीवन एक महान लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मिला है,
जब तक वह न मिले, एक क्षण के लिए भी प्रमादी नहीं होना है. दुःख हमें सजग करते
हैं, आँखें खोलते हैं, हम दुखों का कारण खोजने पर विवश होते हैं तो अपने भीतर के
विकारों को स्वच्छ करने की प्रेरणा मिलती है. हम न तो अहंकारी बनें न ही अन्याय के
सामने झुकें. एक विनम्र प्रतिरोध की आवश्यकता है. प्रेम भरी दृढ़ता तथा सत्य के लिए
कुछ भी सहने की क्षमता !
संतोष वो भी इश्वर का प्रेम पाने मिएँ ... जितना भी मिले कम है ...
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार !
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