Monday, December 15, 2014

जब जैसा तब वैसा रे

जुलाई २००७ 
जो नश्वर को जानता है, वह शाश्वत है. वही हम हैं. हम अपने तन में होती संवेदनाओं को देखते हैं जो देखते-देखते नष्ट हो जाती हैं, क्योंकि वे नश्वर थीं. हमारे मन में उठने वाली प्रत्येक भावना, कल्पना, विचार नश्वर है, हम जो उनके साक्षी हैं, शाश्वत हैं. हम व्यर्थ ही मन की इन कल्पनाओं को सत्य मानकर स्वयं को सुखी-दुखी करते रहते हैं. हमें तो इन्हें ये जब जैसी हैं, वैसी मानकर आगे बढ़ जाना चाहिए. ये तो जाने ही वाली हैं !

3 comments:

  1. मन की कल्पनाओं को फिर भी कहाँ आराम देते हैं हम ...

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  2. विचारों का मार्च पास्ट और टाइड कब रुका है मुझे इससे क्या मैं क्या विचार हूँ क्षणिक ?न न शाश्वत हूँ मैं सनातन चेतना यहां वहां सर्वत्र मैं ही तो हूँ।

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  3. दिगम्बर जी व वीरू भाई, सही कहा है आपने, विचारों पर रोक लगाना सम्भव नहीं पर उसे दिशा दी जा सकती है. स्वयं को उनसे पृथक देखा जा सकता है. स्वागत व आभार !

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