जून २००७
हमें
स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाना है, जहाँ कोई भेद नहीं है, वहाँ अद्वैत है. स्थूल में
भेद है, वहाँ सारे विकार हैं. सूक्ष्म निर्विकार है, वह सारे दुखों से परे है. उस
सूक्ष्म को पाना हो तो पहले तन रूपी घट को तपना होगा, मन रूपी दूध को जमाना होगा
तब आत्मा रूपी नवनीत प्रकट होगा. तन से निष्काम कर्म, मन से समता को जो साध ले वही
आत्मा को जान सकता है. अहंकार ही हमें आत्मा से दूर रखता है. अहंकार भीतर के रस को
सुखा देता है. मात्र बौद्धिक ज्ञान कब तक हृदय को हर-भरा रखेगा, उसे तो भक्ति का
पावन जल चाहिए. आत्मा का आनंद भक्ति के सहारे मिल सकता है. जिसकी प्रज्ञा जगे तो
विनम्रता आ ही जाती है.
बहुत सार्थक प्रस्तुति...भक्ति ही आनंद का स्त्रोत है..
ReplyDeleteउधौ बनके देख लिया अब भक्ति कर।
ReplyDeleteसुन्दर मनोहर विचार।
कैलाश जी व वीरू भाई, स्वागत व आभार !
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