Wednesday, March 25, 2015

प्रेम ध्यान का बीज है

जुलाई २००८ 
प्रेम ही वह सूत्र है जिसे पकड़कर हम ईश्वर तक पहुंच सकते हैं. तभी हम जानते हैं कि हम अस्तित्व की उर्मियाँ हैं. इससे हमारा विरोध नहीं है. प्रेमपूर्ण होते ही हम ध्यानपूर्ण हो जाते हैं, और ध्यानपूर्ण होते ही प्रेमपूर्ण ! जब हम स्वयं को आँख भर कर देखते हैं तो पाते हैं कि हम हैं ही नहीं, और तभी पता चलता है परमात्मा है. ‘मैं’ हूँ यह हमारा सोचना ही आँखों पर पड़ा पर्दा है, ध्यान में वही मिटता है, जो है ही नहीं, जो है वह कभी मिटता ही नहीं. जब तक मन अशांति से ऊबे नहीं तब तक मन झूठ-मूठ ही खुद को बनाये रखना चाहता है. अहंकार की यात्रा जब तक तृप्त नहीं होती तब तक ‘मैं’ नहीं मिटता. 

3 comments:

  1. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी है और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा - बृहस्पतिवार- 26/03/2015 को
    हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः 44
    पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें,

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  2. अनुपमा जी व दर्शन जी, स्वागत व आभार !

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