२ अप्रैल २०१८
जीवन हमें कुछ देना चाहता है, और हमारी झोली छोटी है. जीवन
बंटना चाहता है और हमने सीमाएं बना ली हैं. जीवन सत्य है, अमृत है और प्रकाश है,
हम असत्य, मृत्यु और अंधकार का वरण करके ही संतुष्ट हैं. हमारी झोली यदि पहले से
ही भरी हो तो उसमें और क्या समाएगा, हमने यदि स्वयं को अपनी मान्यताओं और धारणाओं
में ही कैद कर लिया हो तो यथार्थ का बोध हम क्योंकर कर पाएंगे. असतो मा सदगमय...के
रूप में ऋषियों ने जो प्रार्थना वेदों में गाई है, वह हर आत्मा की भीतरी अभीप्सा
है. हम आजतक जिसे जीवन मानते आये हैं, वह सुख-दुःख, जरा-मृत्यु और क्षुधा-तृष्णा
के दायरों में ही सीमित है. मानव के द्वारा देह, मन और प्राण के अतिरिक्त अपने
भीतर एक ऐसी स्थिति का अनुभव भी किया जा सकता है जिसमें होना मात्र ही पर्याप्त
है, जो जीवन का स्रोत है. साधना का यही ध्येय है.
माया से बाहर आ के ही इंसान देह और मोह से परे हो के आत्म निर्माण का सोच पाता है ...
ReplyDeleteसुंदर लिखा है ...
सही कहा है आपने, माया के घेरे में बंधा मन आत्मा से वंचित ही रह जाता है
Deleteअंतर्घट को रीता करने के बाद ही वह आत्मबोध के लिए तैयार होगा... सुन्दर चिंतन
ReplyDeleteस्वागत व आभार कैलाश जी !
Deleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन विश्व ऑटिज़्म जागरूकता दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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