Friday, April 20, 2018

प्रीत बिना जग सूना सूना


जिसका अंतर प्रेम से भीग-भीग जाता हो, फिर वह प्रेम चाहे प्रकृति के प्रति हो, देश के प्रति हो या स्वजनों के प्रति, वही परम की राह का राही हो सकता है. मरुथल जैसा हृदय ‘उसके’ किसी काम का नहीं, ‘जो’ रस से ही बना है. हानि-लाभ की भाषा में सोचने वाली बुद्धि हमें मस्त होने ही नहीं देती. बुद्धि का अति प्रयोग ही हमें बच्चों जैसी सहज मुदिता से दूर ले जाता है. भावना से युक्त मन ही उस अनुराग का अधिकारी होता है, जो राग का विरोधी नहीं बल्कि उसे पूर्णता प्रदान करता है. संसार के प्रति राग हो हम द्वेष से बच ही नहीं सकते, क्योंकि यहाँ सब कुछ जोड़े में ही मिलता है, पर परम के प्रति अनुराग हो तो उसका कोई विरोधी नहीं. इस परम को किसी हद में नहीं बाँधा जा सकता, हर किसी के लिए वह निजी हो सकता है, जो एक साथ ही सबका है. जैसे हर बच्चे का माँ से विशेष प्रेम होता है और माँ के लिए सब बच्चे समान होते हैं. वह एक साथ सबके लिए उपलब्ध है, पर हममें से जो उसे अपना मान लेगा, उसे ही वह प्राप्त होगा. 

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