२६ अक्तूबर २०१८
हमें जो भी चाहिए पहले से ही मिला हुआ है, इसीलिए हमारी नजर उस
तरफ नहीं जाती. जो प्रचुरता में उपलब्ध हो उसकी कीमत घट जाती है, जो दुर्लभ हो वह
बेशकीमती बन जाता है. शिशु को जन्म के साथ सहज ही आनंदित रहने की सौगात मिलती है,
किन्तु माँ-पिता जब उसे खिलौना लाकर देते हैं, उसे खुश होने का अभिनय करना सिखाते
हैं. कुछ बड़ा होने पर छोटे से कृत्य पर ही उसे पुरस्कार देते हैं, लोभी बनाते हैं.
व्यर्थ के गीतों पर उसे नृत्य करना सिखाते हैं, उसका सहज नृत्य खो जाता है.
प्रतिस्पर्धा की दौड़ में उसे भागना सिखाते हैं. जीवन को बनावटी बनाने के सारे उपाय
किये जाते हैं. किशोर होते-होते बालक की सारी स्वाभाविकता खो जाती है. कठिनाई यह
है कि उनके माता-पिता ने भी कुछ ऐसा ही उनके साथ किया था. शास्त्र व गुरू हमें
स्वभाव की ओर वापस ले जाते हैं. सहजता व सजगता से जीना सिखाते हैं. जीवन की
परिपूर्णता का अनुभव करवाते हैं. जिस प्रेम की खोज में लोग जीवन भर भटकते हैं और
निराशा ही हाथ लगती है, वे उस प्रेम को हमारे ही अंतर्मन की गहराई से पुष्प की
सुगंध की तरह जग में बिखराने की कला सिखाते हैं.
गुरु और शास्त्र की महिमा शायद इसी लिए है जीवन में ...
ReplyDeleteगहरा दर्शन लिए ...
https://hi.m.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%A6%E0%A4%BF_%E0%A4%B6%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF
ReplyDeleteकलियुग की अपेक्षा त्रेता में तथा त्रेता की अपेक्षा द्वापर में , द्वापर की अपेक्षा कलि में मनुष्यों की प्रज्ञाशक्ति तथा प्राणशक्ति एवं धर्म औेर आध्यात्म का ह्रास सुनिश्चित है। *यही कारण है कि कृतयुग में शिवावतार भगवान दक्षिणामूर्ति ने केवल "मौन व्याख्यान" से शिष्यों के संशयों का निवारण किया।*
*"मौन व्याख्यान" कैसे होता होगा ?*