जुलाई २००३
ईश्वर के सम्मुख हमें छोटे बालक की भांति आना है, जैसे माँ-पिता अपने बच्चे की भूल
उसका पछतावा देखकर क्षमा कर देते हैं वैसे ही प्रभु हमारी भूलों को क्षमा करते हैं
और तत्क्षण हमें उसे स्वीकार करना है, स्वयं को उत्तेजित, उतावला, कायर, भयभीत न
बनाते हुए हम ईश्वर के साथ शांतिपूर्वक रह सकते हैं. हमारी भीतरी शांति हमें किसी
भी परिस्थिति का सामना करने की क्षमता प्रदान करती है. भीतरी शांति ही बाहरी शांति
की पूरक है. ईश्वर हमें अपने समान सृजित करते हैं, उनका स्वभाव पूर्ण शांतिमय तथा
आनन्दमय है, वही आनंद तथा शांति हमारा भी मूल स्वभाव है, पर हम उसे भूले रहते हैं.
सुख के लिये संसार की गुलामी करते हैं. वास्तव में तन साधना के लिये ही मिला है,
यह आनंद का घर है, पर हम इसे खंडहर की तरह बना लेते हैं, जो घने जंगल में है जहाँ
जाले लगे हैं, कीट-पतंगों ने जिस पर अपना अधिकार बना लिया है, जहाँ एक खंडित
मूर्ति है पर कोई उसकी देखभाल नहीं करता, यदि हम इसे प्रभु का मंदिर बना कर रखें
तो उसका राज्य हमें अपने भीतर मिल जाता है, हम उसके सखा बन जाते हैं, वह जो हमारे
मित्र हैं पर बिछड़ गए हैं.
बहुत सुन्दर आध्यात्मिक ज्ञान ----अच्छे कर्मो से हम अपने अन्दर ही प्रभु के दर्शन कर सकते हैं ---बहुत बधाई अनीता जी
ReplyDeleteईश्वर हमें अपने समान सृजित करते हैं,
ReplyDeleteसुन्दर आध्यात्मिक ज्ञान
राजेश कुमारी जी, रमाकांत जी आप दोनों का स्वागत व आभार!
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