Saturday, August 18, 2012

ले चल हमें अनंत की ओर


जुलाई २००३ 
छोटी-छोटी बातों से परेशान होकर जीने के लिये यह जीवन हमें नहीं मिला है, जो इतना अमूल्य है, जिसे पाने के लिये देवता भी लालायित रहते हैं. यह मानव देह हमें उस अनंत का सान्निध्य प्राप्त करने के लिये मिली है. इसी देह में उसे पाने के लिए साधना करनी है. इसे एक मंदिर बनाना है जहाँ परमात्मा विराजमान हों, मन पूजा की थाली बन जाये तथा ज्ञान के पुष्प व दीप जहाँ भीतर–बाहर प्रकाशित व सुगन्धित कर रहे हैं. यह जगत उस जगदीश्वर की सुंदर रचना है, इसमें जो भी जिस क्षण भी जो घट रहा है, वह किसी न किसी कारण वश दिखाई पड़ता है, कार्य-कारण की इस श्रंखला को तोड़ते ही हम मुक्त हैं, जहाँ हम पूर्णतया उसके निर्देशन में कार्य करते हैं, कर्म तब बांधता नहीं, कोई भी घटना हमारे मन पर प्रभाव नहीं डालती. ऐसे प्रेम के राज्य में सदगुरु हमें ले जाने आते हैं, हम सारी उहापोह छोड़कर उनका हाथ थामकर निश्चिन्त होकर जब उनके पीछे चल पड़ते हैं वह हमें मंजिल तक पहुँचा देते हैं.

5 comments:

  1. क्षणांश के लिए व्यथित होना संभव है ... पर ईश्वर है तो हल भी मिलता ही है

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    1. रश्मि जी, एक ऐसी अवस्था भी होती है जब सारी व्यथाएं बाहर ही रह जाती हैं...भीतर एक वही विराजमान होता है

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  2. धीरेन्द्र जी, व मनोज जी स्वागत व आभार !

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