Tuesday, August 28, 2012

भक्त वही जो कुछ न चाहे


जुलाई २००३ 
भक्ति स्वयं फलरूपा है, अर्थात भक्ति का फल और भक्ति है, अपरा के बाद परा भक्ति ! जीवन मुक्त ही सच्ची भक्ति कर सकता है ऐसी भक्ति जो कुछ चाहती नहीं, सिर्फ देना चाहती है, अपना एकांतिक प्रेम उस प्रभु को, जो एकमात्र प्रेम करने योग्य है, वह सभी के भीतर है, कण-कण में है, अतः भक्त के लिये कोई पराया नहीं रहता. परमात्मा का प्रेम हमारे अंतर में हजार गुना होकर बल्कि अनंत गुना होकर प्रकाशित होता है. हमें उसके प्रेम का अधिकारी बनना है और उसकी सरल, सहज राह है विनम्रता की राह. वैसे तो परमात्म प्रेम सहज प्राप्य है, पर मन इसे देख नहीं पाता, जब शरणागति की भावना उपजती है, अपने अंतर को शांत बनाने की इच्छा बलवती होती है, तो भक्ति प्रकट होती है और आगे का मार्ग सरल हो जाता है. 

5 comments:

  1. सुन्दर विचार !!

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  2. bahut sundar wichar .KINTU AAJ BINA APEKSHA KE BHAKTI YA PREM KAHAN .

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    1. रमाकांत जी, तभी तो आज आनंद भी जीवन में दिखाई नहीं देता..

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  3. मनोज जी, रितु जी आपका स्वागत व आभार !

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  4. बिलकुल सही कहा अनीता जी।

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