जुलाई २००३
सदगुरु हमें अपने सच्चे स्वरूप का परिचय देते हैं और वहाँ तक जाने का रास्ता भी
बताते हैं. और एक बार जब उस पथ के यात्री हम बन जाते हैं तो लगता है वास्तविक जीवन
अब शुरू हुआ है. तब यह जगत एक खेल प्रतीत होता है. यहाँ सब कुछ बदल रहा है यह
स्पष्ट होने लगता है. हमारा अंतः करण ही तब एक मात्र स्थिर प्रतीत होता है, सदा एक
सा, हम केन्द्र में स्थित हो जाते हैं. तब संसार के झूले के झकोरे हमें नहीं
झुलाते. हम द्रष्टा भाव में आ जाते हैं. यह जगत दृश्यमान है हम उससे पृथक हैं.
जैसे जल में नाव जल से पृथक है. कीचड़ में कमल की तरह हम निर्लिप्त हो जाते हैं.
सारे कार्य पूर्ववत होते हैं, पर जैसे प्रकृति अपना खेल देख रही होती है. तीनों
गुणों के आधीन होकर हम जगत का व्यवहार तो करते हैं पर स्वयं को इससे पृथक देखते
हैं, शरीर, इंद्रिय, मन और बुद्धि अपना-अपना कार्य करते हैं, ऐसा स्पष्ट आभास होने
लगता है.
"जैसे जल में नाव जल से पृथक है. कीचड़ में कमल की तरह हम निर्लिप्त हो जाते हैं."
ReplyDeleteबहुत खूब कहा है आपने....अतिसुंदर |
"कल आज और कल"
आभार...|
shubh sudridh sundar vichaar ...
ReplyDeleteabhar Anita ji ..
जब उस पथ के यात्री हम बन जाते हैं तो लगता है वास्तविक जीवन अब शुरू हुआ है......ऐसे ही अनुभव हो रहे हैं ।
ReplyDeleteसदगुरु हमें अपने सच्चे स्वरूप का परिचय देते हैं और वहाँ तक जाने का रास्ता भी बताते हैं.
ReplyDeleteशुभ विचार
दृष्टा होना बड़ी बात है ,बहुत खूब .... .यहाँ भी पधारें -
ReplyDeleteram ram bhai
बृहस्पतिवार, 30 अगस्त 2012
लम्पटता के मानी क्या हैं ?
सदगुरु हमें अपने सच्चे स्वरूप का परिचय देते हैं और वहाँ तक जाने का रास्ता भी बताते हैं.,,,,,,,,,,,,,,सुंदर विचार,,,,
ReplyDeleteRECENT POST,परिकल्पना सम्मान समारोह की झलकियाँ,
मंटू जी, अनुपमा जी, वीरू भाई,धीरेन्द्र जी,रमाकांत जी व इमरान आप सभी का हार्दिक स्वागत व आभार!
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