Monday, March 16, 2015

बीत न जाये फिर बसंत यह

जुलाई २००८ 
हम जो पाना चाहते हैं वह ठीक है लेकिन जिस राह से चल कर पाना चाहते हैं, वह राह गलत है. हमारी हर खोज व्यर्थ हो जाती है क्योंकि जिसे हम खोज रहे हैं वह संसार दे नहीं सकता. हमरा मन कहीं बैठना ही नहीं चाहता क्योंकि वह हर वक्त किसी न किसी तलाश में रहता है. परमात्मा के बिना उसका कोई ठौर नहीं, वह संसार में भी उसी को खोज रहा है, पर संसार के पार ही वह मिलता है.  हम जिसे फूल बनकर चाहते हैं वह काँटा बनकर चुभने लगता है. भक्त संसार के सौन्दर्य को भी परमात्मा का ही मानता है. यह जीवन तो बसंत है और सारा जगत उल्लास से भरा है, पर हम सो रहे हैं. एक बार यदि हम जग जाएँ तो वह बसंत जीवन में आ सकता है जो परम है. साधना में कुछ नया नहीं करते, बस दिशा बदलनी है. हम जिस प्रेम भरी नजर से इस संसार को देखते हैं उसी नजर को हमें परमात्मा को देखने में भी लगाना है. हमारे भीतर प्रेम का जो छोटा सा झरना है उसी को एक दिन सागर से मिलाना है. जीवन कब गुजर जायेगा पता ही नहीं चलेगा, हमारी असली सफलता इसी में है कि भीतर के अमृत से जुड़ जाएँ, अपने असली प्रियतम को रिझा लें. हमारे चित्त का पंछी उसी अमृत का पान करना चाहता है, उसी सखा से मिलना चाहता है, हम संसार में लगाने के लाख उपाय करें यह वहाँ नहीं लग सकता. यह तो शाश्वत को ही चाहेगा. चित्त की बेचैनी का अर्थ है कि वह अपने घर जाना चाहता है. 

2 comments:

  1. हमारी असली सफलता इसी में है कि भीतर के अमृत से जुड़ जाएँ, अपने असली प्रियतम को रिझा लें..............

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  2. स्वागत व आभार राहुल जी...

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