Tuesday, September 25, 2018

जीवन जब उत्सव बन जाये


२५ सितम्बर २०१८ 
मानव मन में सदा ही आगे बढ़ने की प्रवृत्ति काम करती रहती है. हम कभी संतुष्ट होकर नहीं बैठ सकते, जिसके पास साईकिल है वह कार चाहता है और उसके लिए श्रम करता है, जिसके पास कार है वह हवाई जहाज में उड़ना चाहता है. जीवन की ऊर्जा हमें आगे ही आगे धकेलती हुई सी लगती है. कुछ न कुछ नया, मौलिक करने की धुन लोगों को हैरतंगेज कारनामे करने में भी लगा देती है. इसका अर्थ हुआ हम अपने जीवन में पहले समस्या का चुनाव करते हैं और फिर उसका हल ढूँढ़ते हैं. लगता है सारा जीवन एक समस्या से दूसरी समस्या तक जाने व उसको हल करने का ही नाम है. प्रकृति में इसका विपरीत होता है, वहाँ पहले हल दिया जाता है, फिर समस्या प्रकट होती है. हर प्रदेश में वातावरण के अनुकूल भोज्य पदार्थों का मिलना व जड़ी-बूटियों का पाया जाना इसका प्रमाण है. हर ऋतु के अनुसार फलों व सब्जियों का उगना और मौसम के अनुसार वातावरण में कीट-पतंगों का पैदा होना आदि. जीवन जीने का एक दूसरा ढंग भी हो सकता है, वह है समस्या को समस्या न मानकर एक खेल मानना, तब जीवन एक क्रीड़ा से दूसरी क्रीड़ा में जाने का नाम हो सकता है. सम्भवतः इसीलिए हमारे पूर्वजों ने इतने सारे उत्सवों को मनाने की प्रथा शुरू की थी. इसके लिए सबसे प्रथम आवश्यकता है आपसी कलहपूर्ण प्रतिस्पर्धा न रहे, अहंकार को पोषण देने वाली प्रतियोगिताओं के नाम पर आपसी द्वेष को बढ़ावा न मिले. हरेक को अपनी सहज प्रतिभा को दिखाने का अवसर मिले, किसी के भी साथ किसी भी तरह का भेदभावपूर्ण व्यवहार न किया जाये. इसी सह- अस्तित्त्व को शास्त्रों में यज्ञ के प्रतीक से बताया गया है.

2 comments:

  1. सह अस्तित्व को स्वीकार करके जीवन सहज हो जाता है ...
    प्रतिस्पर्धा जला के ख़ाक कर देती है इंसान को ...

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    1. सही कहा है आपने, स्वागत व आभार दिगम्बर जी !

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