२२ सितम्बर २०१८
कृष्ण अर्जुन से कहते
हैं, तुम मेरे प्रिय हो, तुम निष्पाप हो, इसलिए मैं तुमसे यह ज्ञान कहूँगा. हर
साधक अर्जुन है और परमात्मा की नजरों में प्रिय भी. कैसी अद्भुत है उसकी शक्ति, वह
एक होकर हजारों आत्माओं को अपना निस्वार्थ प्रेम दे सकता है. हम अपने निकटस्थ
दो-चार को भी सहज प्रेम देने में कृपणता का अनुभव करते हैं. परमात्मा की दृष्टि
में हम सभी आत्माएं हैं, जिन्हें वह अपने समान ही देखना चाहता है, शुद्ध और मुक्त...वह
उन सभी को जो उससे प्रेम करते हैं और मार्गदर्शन चाहते हैं, सदा सन्मार्ग दिखाता
है. अंतर्प्रेरणा के रूप में वह साधक को सचेत करता है. प्रेम करना उसका स्वभाव है,
बल्कि वह प्रेम स्वरूप ही है, उसकी ओर एक कदम रखते ही शांति की लहरों का मधुर कलकल
सुनाई देने लगता है. इस जगत में कुछ भी स्थिर नहीं है, और उसकी सत्ता में कुछ भी
अस्थिर नहीं है, वह अचल, अडोल और अच्युत है. उसे हम आज पुकारें, कल पुकारें, एक
वर्ष बाद पुकारें या एक युग बाद, वह सदा उसी तरह स्वागत करता हुआ मिलेगा. इसीलिए
वह मीरा का भी उतना है जितना राधा का.
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