Tuesday, March 10, 2015

भीतर का प्रकाश जगे जब

अप्रैल २००८ 
अनेकांत हमें कहीं उलझने नहीं देता. जीवन के बारे में सच्चाई हो तो दुःख का कोई कारण नहीं. जीवन की परिस्थितियाँ बदल रही हैं, हमारे हाथ में समता में रहना है, नहीं तो प्रवाह बहा ले जा सकता है. दृष्टिकोण यदि सही हो तो मन एक समता में टिका रह सकता है. जब-जब हम प्रमाद में जाते हैं, तो संवेग नियन्त्रण की शक्ति कमजोर हो जाती है. हमारे किसी भी व्यवहार से यदि किसी को थोड़ा सा भी दुःख पहुँचे तो हमने कर्म बाँध ही लिया. हम अध्यात्म में टिके रहते हैं तो दूसरों के दोष देखना अपने आप छूट जाता है. यदि अब भी दोष दीखते हैं तो आत्मा में स्थिति दृढ़ नहीं है. परमात्मा हर जीव के भीतर है, वह सभी ओर है, सभी उसके भीतर हैं और फिर भी वह अप्रकट है, छिपा है. सभी को उसकी माया ने ढका हुआ है. वेद का ऋषि कहता है, मेरे भीतर जो परमात्मा रूपी प्रकाश है उसका आवरण हटा दो, वह उस प्रकाश से ही प्रार्थना करता है. हम इस जगत में प्रेम बांटने ही आये हैं अथवा तो सेवा करने. शरीर द्वारा सेवा व मन द्वारा प्रेम देना ही हमारा लक्ष्य है ! 



3 comments:

  1. " परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम् ।"

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  2. हम इस जगत में प्रेम बांटने ही आये हैं अथवा तो सेवा करने.

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  3. स्वागत व आभार शकुंतला जी व राहुल जी..

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