Tuesday, March 3, 2015

मिट कर ही मंजिल मिलती है

फरवरी २००८ 
अगर बीज अपने को बचाए तो बचता नहीं और मिटाए तो अमर हो जाता है. जो मिटेगा वही बचेगा, जो बचाएगा वह मिट जाता है. जिस दिन यह ‘मैं’ जान लेता है, मेरे होने में ही बंधन है उस दिन यह मन को सूक्ष्म करने की क्रिया आरम्भ करता है. यह ‘मैं’ का पर्दा मखमल से मलमल का करना है, जिस दिन यह मन पूरा मिट जाता है उस दिन परमात्मा ही बचता है. अभी तो मोटा लोहे का पर्दा है मन, जिस दिन ‘मैं’ नहीं रहता उस दिन वह महा अतिथि आता है. अभी मन खाली नहीं है, भीतर कोलाहल है, इसे शांत करके ही मन महीन किया जा सकता है. सूक्ष्म करते करते शून्य की यात्रा शुरू करनी है जो पूर्ण पर समाप्त होती है. हमारे भीतर सूक्ष्म भी है स्थूल भी. देह बर्फ जैसी है, मन पानी जैसा, आत्मा भाप जैसी है. जो स्वयं को देह मानता है वह मृत्यु से डरेगा. जो स्वयं को मन मानता है वह काव्य, संगीत तथा कला में रूचि रखता है और जो स्वयं को आत्मा मानता है वह सर्वव्याप्त है, वह उड़ान भर सकता है. वह मुक्त है. वह नष्ट नहीं हो सकता. वह सूक्ष्म है, जो जितना सूक्ष्म है उतना ही शक्तिशाली होता जायेगा. वह चट्टान सा दृढ़ भी होगा और फूल से भी कोमल. वह होकर भी नहीं होगा और उसके सिवा भी कुछ होगा भी नहीं, सारे द्वंद्व उसमें आकर मिट जायेंगे. वह होने के लिए कुछ करना नहीं है. वह तो है ही, केवल उसे जानना भर है. मन को खाली करना ऐसा तो नहीं है कि कोई बर्तन ख़ाली करना हो. कामना को त्यागते ही या समर्पण करते ही मन ठहर जाता है, ठहरा हुआ मन ही ख़ाली मन है !


6 comments:


  1. कलरव तभी सुन पाओगे जब कोलाहल नहीं होगा !!बहुत सुंदर बात !!

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    1. स्वागत व आभार अनुपमा जी..

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  2. ठहरा हुआ मन ही खाली मन है। आपकी डायरी से बहुत कुछ सीखने को मिलता है।

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    1. सही है...जीवन भर हमें कुछ न कुछ सीखते ही रहना है..

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  3. यही तो कठिन है अनिता जी । मन कभी स्थिर कहॉ होता है ?
    सुन्दर चिन्तन ।

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    1. करत करत अभ्यास ते जड़मति होत सुजान...

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