२९ जून २०१७
उपनिषद कहते हैं, यह सारा जगत परमात्मा से आच्छादित है. जड़-चेतन सभी कुछ उसी का है,
उसी से है. हमें त्याग भाव से इसका भोग करना चाहिए, जैसे हम किसी होटल अथवा किसी
के घर जाते हैं तो सभी सामानों का उपयोग करते हैं, वहाँ दिया भोजन भी ग्रहण करते
हैं पर किसी भी वस्तु पर अपना अधिकार नहीं जताते. इस जगत में हमें वैसे ही मेहमान
बनकर रहना है क्योंकि यह निश्चित है कि किसी भी क्षण इसे छोड़ना पड़ेगा. यदि आसक्ति
वश हमने इसे अपना माना तो छोड़ते समय उतना ही दुःख होगा. त्याग भाव से भोगने का एक
अर्थ यह भी हो सकता है कि हम मांगे नहीं, देने वाले बनें. देने का भाव यदि भीतर
बना रहता है तो जीवन में कभी भी किसी वस्तु का अभाव नहीं रहेगा.
हम खुद भी तो क्षणिक अस्तित्व वाली एक वस्तु ही हैं। और एक वस्तु किसी अन्य वस्तु पर अधिकार जमाये तो क्या और न भी जमाये तो क्या।
ReplyDeleteमुझे तो लगता है, हम शाश्वत हैं, क्षणिक नहीं हैं, हमारे हर कृत्य का फल हमको इस जन्म में अथवा तो अगले जन्मों में भोगना ही पड़ेगा, जितना जितना हम स्वयं को साक्षी मानते हैं वस्तु, व्यक्ति और घटना का प्रभाव या अभाव हम महसूस नहीं करते और मुक्त रहते हैं.
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