२८ जून २०१७
हमारी पूजा और प्रार्थना मन के किस स्तर से आती हैं, साधक को इसका ध्यान रखना होगा.
यदि पूजा से हम कुछ पाना चाहते हैं और प्रार्थना हम इसलिए करते हैं कि लोग हमें
धार्मिक कहें, तो दोनों व्यर्थ हैं. पूजा को अहंकार बढ़ाने का नहीं उसे नष्ट करने
का साधन बनाना है. जब तक मन पूर्ण संतोष व विश्राम का अनुभव नहीं कर लेगा उसे कुछ
न कुछ बनने अथवा पाने का रोग लगा ही रहता है. ध्यान के बिना पूर्ण विश्राम सम्भव
नहीं, अथवा तो मन जब श्रद्धा से ओतप्रोत हो जाये. भावशुद्ध हों तभी ध्यान घटता है.
देह को पूर्ण शांत अवस्था में बैठाकर गहरी लम्बी श्वासें लेते हुए जब साधक स्वयं
को परम के सम्मुख छोड़ देता है तब वही शांति और संतोष बनकर उसके मन व देह पर आच्छादित
हो जाता है.
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जन्म दिवस - पी. वी. नरसिंह राव और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार हर्षवर्धन जी !
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