१० जून २०१७
मन हर पल कल्पनाओं अथवा स्मृतियों के गलीचे बुनता रहता है. इसी
व्यस्तता में वह आत्मा का निर्मल स्पर्श चूक जाता है. हमारे चारों ओर वह अव्यक्त
सत्ता हर पल विद्यमान है. किन्तु मन के पर्दे पर अनवरत खेल चलता रहता है तो वह
पर्दा कभी खाली ही नहीं होता और उसका होना छिपा ही रहता है. जैसे आकाश पर यदि सदा
ही बादल बने रहें तो कोई आकाश को कैसे देखेगा, आत्मा के आकाश पर मन के बादल कभी
विलीन ही नहीं होते. मन का होना आत्मा पर ही निर्भर है पर यह उसके अस्तित्त्व से
ही बेखबर है, इसी को संतों ने माया कहा है. नींद में जब चेतन मन सो जाता है तब
आत्मा का स्वाद मिलता है, तभी नींद इतनी प्रिय होती है. किन्तु नींद में उससे
मुलाकात नहीं हो पाती, यह तो ध्यान में ही सम्भव है, जब मन भी न रहे और बुद्धि का
सीधा साक्षात्कार आत्मा से हो सके.
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