मानव सुख का आकांक्षी है, किंतु ऐसा सुख वह नहीं चाहता जो बिना किसी श्रम के उसे उपलब्ध हो जाये. वह अपने सुख का निर्माण भी स्वयं ही करना चाहता है. छोटा बच्चा पालने में आराम से पड़ा है, पर वह स्थिर नहीं बैठता, जितना हो सके हाथ-पैर हिलाता है, यदि ऊपर कोई खिलौना लटका हुआ है, उसे पकड़ना चाहता है. कुछ पाने की उसकी दौड़ पालने से ही आरंभ हो जाती है. करवट बदलना आते ही वह बैठना शुरू कर देता है और चलना सीखते ही जल्दी भागने भी लगता है. मानव के भीतर जो चेतना है वह अग्नि की भांति ऊपर ही ऊपर जाना चाहती है. कुछ वैज्ञानिक अंतरिक्ष का रहस्य खोजने में लगे हैं और कई सागर की अतल गहराइयों का. हमारे ऋषि भी एक वैज्ञानिक की भांति वर्षों तक प्रयोग करते थे, उन्होंने भी कई खोजें की, साथ ही वे उस चेतना को भी जानना चाहते थे जो सदा ही उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा देती थी. यही खोज भारत को अन्य राष्ट्रों से अलग करती है. जो हमें चैन से बैठने नहीं देता आखिर भीतर वह क्या है? कौन विचारता है ? कौन चाहता है ? कौन कर्म के लिए प्रेरित करता है ? इन प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए ही सम्भवतः अध्यात्म शास्त्र की रचना हुई होगी.
उपयोगी आलेख
ReplyDeleteस्वागत व आभार !
ReplyDelete