२० फरवरी २०१९
जैन धर्म में प्रतिक्रमण
का बहुत महत्व है. इसका अर्थ है अपनी भूल का प्रायश्चित करना. मन में जिस क्षण भी
कोई राग-द्वेष जगता है, अथवा क्रोध, मोह, मान, माया या दर्प का क्लेश मन को सताता
है, उसी क्षण आत्मा से क्षमा प्रार्थना कर लेना ही प्रतिक्रमण है. मन जब खाली होता
है, एकाग्र रहता है. मन में विकार जगते ही विचारों की बाढ़ आ जाती है. प्रतिपल
विचारों की गुणवत्ता बनाये रखना भी इसी साधना का अंग है. हमारे भीतर यदि कोई क्लेश
देने वाला विचार आता भी है तो उसे स्वयं से पृथक ही जानना है. इसी तरह कोई अच्छा
विचार आता है तो वह भी स्वयं से पृथक है, ऐसा जानना है. इस प्रकार हम अहंकार से
ग्रसित नहीं होते और सहज ही शुद्ध स्वरूप में टिकने लगते हैं.
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