कर्म किये बिना कोई एक क्षण भी नहीं रह सकता. हमारे कर्म ही
हमारा परिचय देते हैं. किसान खेती का कर्म करता है और कवि लिखने का, दोनों ही अपने
कर्म को अहंकार को पोषने के लिए भी कर सकते है और पूजा स्वरूप भी. सभी के जीवन में
कोई न कोई महत्वपूर्ण वस्तु, व्यक्ति या स्थिति होती है, जिसको वे चाहते हैं.
हमारा श्रद्धा पात्र जब सारा अस्तित्त्व बन जाता है तब उपासना घटित होती है. एक
शिशु भी जानना चाहता है और एक वृद्ध भी अपने आस-पास के परिवेश के बारे में सजग
रहना चाहता है, यदि ज्ञान का बिंदु अपने भीतर केन्द्रित हो जाये तो स्वयं का ज्ञान
अपने आप घटित होने लगता है. कर्म, उपासना और ज्ञान स्वयं को जानने के तीन साधन
हैं. साधक के कर्म उपासना बन जाते हैं और वही भक्ति एक दिन ज्ञान में बदल जाती है.
जब भीतर ज्ञान मात्र रह जाता है, उसी क्षण आत्म अनुभव घटित होता है.
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