हमारा निस्वार्थ एकांतिक प्रेम सहज ही इस जगत के प्रति प्रवाहित होता रहे, ऐसी प्रार्थना हमें परमात्मा के निकट ले जाती है। हमारा अंतर दिव्य आनंद से भरा रहे और उसकी किरणें आस-पास बिखरती रहें, यही कामना तो हमें करनी है। हमें यह तन, मन और सही निर्णय करने की क्षमता के रूप में बुद्धि उपहार के रूप में मिले हैं। इन्हें बंधन का कारण मानकर मुक्ति की तलाश करते रहेंगे तो जीवन अपरिचित ही रह जाएगा। तन, मन आदि हमारे लिए साधन स्वरूप हैं जिनके माध्यम से हमें जगत में कार्य करना है। अपने आत्मस्वरूप में स्थित होकर परमात्मा की अपार शक्तियों के द्वारा जितना हो सके जगत में आनंद फैलाना है।
Monday, January 31, 2022
Thursday, January 20, 2022
रस भीतर का जिसे मिला है
देह ऊर्जा का एक केंद्र है. ऊर्जा का चक्र यदि पूर्णता को प्राप्त न हो तो जीवन में एक अधूरापन रहता है. प्रार्थना में भक्त भगवान से जुड़ जाता है और चक्र पूर्ण होता है, तभी पूर्णता का अहसास होता है. हर व्यक्ति अपने आप में अधूरा है जब तक वह किसी के प्रति समर्पित नहीं हुआ. यही पूर्णता की चाह अनगिनत कामनाओं को जन्म देती है. व्यर्थ ही इधर-उधर भटक के अंत में एक न एक दिन व्यक्ति ईश्वर के द्वार पर दस्तक देता है. इस मिलन में कभी आत्मा परमात्मा हो जाता है और कभी परमात्मा आत्मा. मन जहाँ जहाँ अटका है, उसे वहाँ-वहाँ से खोलकर लाना है. इस जगत में या तो किसी के प्रति कोई जवाबदेही न रहे अथवा तो सबके प्रति रहे. एक साधक का इसके सिवा क्या कर्त्तव्य है कि भीतर एकरसता बनी रहे, आत्मभाव में मन टिका रहे. जीवन जगत के लिए उपयोगी बने, किसी के काम आए. अहम का विसर्जन हो. परमात्मा ही हमारा आदर्श है जो सब कुछ करता हुआ कुछ भी न करने का भ्रम बनाये रखता है. चुपचाप प्रकृति इतना कुछ करती है पर कभी उसका श्रेय नहीं लेती. फूल खिलने से पहले कितनी परिस्थितियों से दोचार नहीं होता है, बादल बरसने से पहले क्या-क्या नहीं झेलता. हम हर काम करने के बाद औरों के अनुमोदन की प्रतीक्षा करते हैं. हम भी छोटे-मोटे परमात्मा तो हैं ही, मस्ती, ख़ुशी तो हमारे घर की शै है, इन्हें कहीं मांगने थोड़े ही जाना है.
Wednesday, January 19, 2022
अपना मालिक आप बने जो
खुद से परिचय जितना गाढ़ा होता जाता है, पता चलता है हम मालिक हैं पर नौकरों की भूमिका निभाते रहते हैं. मन व बुद्धि हमारी सुविधा के लिए ही तो हैं पर हम वही बन जाते हैं. जल जैसे स्वच्छता करने के लिए है, पर जल यदि गंदा हो तो सफाई नहीं कर पाता है, वैसे ही मन तो जगत में प्रेम, शांति व आनन्द बिखेरने के लिए हैं पर जो मन क्रोध बिखेरता है वह तो वतावरण को दूषित कर देता है. परमात्मा की निकटता का यही तो अर्थ है कि हमारा मन परमात्मा के गुणों को ही प्रोजेक्ट करे न कि अहंकार के साथियों को जो दुःख, क्रोध, ईर्ष्या आदि हैं.
Monday, January 17, 2022
शरण में जो भी आए उसकी
Wednesday, January 12, 2022
उत्सव एक रूप अनेक
मकर संक्रांति का उत्सव किसी न किसी रूप में सम्पूर्ण भारतवर्ष में मनाया जाता है।पंजाब, दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और जम्मू में इसे फसल का त्योहार माना जाता है, कृषकगण लोहरी और माघी के रूप में मनाते हैं; अग्नि के चारों ओर नृत्य करते हुए युवा नाचते और गाते हैं। उत्तर भारत में इसका नाम खिचड़ी है, तिल और गुड़ के साथ दाल-चावल का दान भी किया जाता है। राजस्थान और गुजरात में इसी पर्व को सूर्य के उत्तरी गोलार्ध के सूर्य के सम्मुख आने के कारण उत्तरायण कहा जाता है। इस दिन आकाश में रंग-बिरंगी पतंगें उड़ायी जाती हैं। तमिलनाडु में यही पोंगल है जब खुले में चूल्हे पर दाल-चावल बनाए जाते हैं। आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र,केरल और कर्नाटक में इसे संक्रांति कहा जाता है, तीन दिनों तक इस उत्सव को मनाते हैं। पश्चिम बंगाल में इसे पौष संक्रांति कहा जाता है। असम में इसे भोगाली बीहू कहा जाता है जब पीठा, तिल व नारियल के लड्डू व विभिन प्रकार के पारंपरिक व्यंजन बनाए जाते हैं।इस प्रकार यह पर्व पूरे देश को एक सूत्र में जोड़ता है।
Tuesday, January 11, 2022
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्त वरान्नि बोधत
नरेन से स्वामी विवेकानंद बनाने की गाथा से कौन भारतीय अपरिचित है।भारत के युवाओं के खोए हुए आत्मविश्वास को पुनः लौटने के लिए जितना बड़ा योगदान विवेकानंद ने किया है, वह अतुलनीय है। उनके ओजस्वी भाषण पढ़कर आज भी हज़ारों युवा मन आंदोलित होते हैं। ”उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्त वरान्नि बोधत” का संदेश देकर उन्होंने भारतीय होने के मूल उद्देश्य को स्वर दिए हैं। अनंत काल से जिस दिव्य वाणी का उद्घोष हमारे वेद करते आ रहे हैं, उसे भुलाकर जब देशवासी दासता, अशिक्षा, कुरीतियों और अंधविश्वास की ज़ंजीरों में जकड़े हुए थे, तब उनके रूप में जैसे नव आशा का बिगुल बजा हो या आकाश में कोई सूर्य दमका हो। उनके इस महान कार्य को संपादित करने में उनके गुरू की भूमिका से भी सभी परिचित हैं। स्वामी रामकृष्ण परमहंस के दिव्य ईश्वरीय प्रेम और दिव्य शक्तियों के कारण वह उनकी ओर खिंचते चले गए और उन्हीं के ज्ञान व उपदेशों को आत्मसात करके जगत में दिव्य संदेश देने निकल पड़े। आज उन्हीं महापुरुष की जयंती है।
Monday, January 10, 2022
ज्योति एक ही हर अंतर में
प्रमाद, अकर्मण्यता और सुविधाजीवी होना हमारे लिए त्यागने योग्य है। प्रमाद का अर्थ है जानते हुए भी देह, मन व आत्मा के लिए हितकारी साधनों को न अपनाना तथा अहितकारी कार्यों को स्वभाव के वशीभूत होकर किए जाना। अकर्मण्यता अर्थात अपने पास शक्ति व सामर्थ्य होते हुए भी कर्म के प्रति रुचि न होना तथा दूसरों पर निर्भर रहना। सुविधजीवी होने के कारण हम देह को अधिक से अधिक विश्राम देना चाहते हैं, पर इसका परिणाम दुखद होता है जब एक दिन देह रोगी हो जाती है। स्वयं के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान न होने के कारण आत्मा का पोषण करने की बजाय हम उसके विपरीत चलना आरम्भ कर देते हैं। आत्मा सभी के भीतर समान रूप से व्याप्त है, उसमें अपार शक्तियाँ छिपी हैं। हर किसी को उसके किसी न किसी पक्ष को उजागर करना है। साधक को हर क्षण सजग रहकर ऐसा प्रयत्न करना होगा कि ईश्वर का प्रतिनिधित्व उसके माध्यम से हो सके। वह ईश्वर के प्रकाश को अपने माध्यम से फैलने देने में बाधक ना बने।
Sunday, January 9, 2022
प्रेम का फूल खिले जिस मन में
प्रेम कोई कृत्य नहीं है, यह मन की एक अवस्था है जिसमें कोई द्वंद्व नहीं है, विरोध नहीं है, पूर्णत: स्वीकार भाव है।, मन जब तरंगित तो हो पर उद्वेलित ना हो, उत्साह से भरा हो पर उत्तेजित ना हो। आतुरता तो हो पर किसी कार्य को अथवा बात को ऐसे ही होना चाहिये, ऐसी अकुलाहट ना हो। मन की इस शांत अवस्था का नाम ही प्रेम में होना है। शांति के उपवन में ही प्रेम का फूल खिलता है और इस पुष्प से आनंद की सुगंध विसर्जित होती है। सुख इस फूल की कली अवस्था का नाम है। ऐसे में मन में न दीनता रहती है न हीनता, अर्थात स्वयं की शक्ति का पूर्ण ज्ञान होता है । कोई विकार भी वहाँ ठहर नहीं पाता।
Wednesday, January 5, 2022
ध्यान का जो अभ्यास करे
देह में रहते हुए देहातीत अवस्था का अनुभव ही ध्यान है। स्थूल इंद्रियों से स्थूल जगत का अनुभव होता है, सूक्ष्म इंद्रियों से स्वप्न अवस्था का अनुभव होता है। गहन निद्रा में स्थूल व सूक्ष्म दोनों का भान नहीं रहता। ध्यान उससे भी आगे का अनुभव है, जब निद्रा भी नहीं रहती, चेतना केवल अपने प्रति सजग रहती है। ध्यान के आरम्भिक काल में इस अवस्था का अनुभव नहीं होता है, पर दीर्घकाल के अभ्यास द्वारा इसे प्राप्त किया जा सकता है। एक बार इसका अनुभव होने के बाद भीतर स्मृति बनी रहती है। इसे ही भक्त कवि सुरति कहते हैं। इस अवस्था में गहन शांति का अनुभव होता है, मन में यदि कोई विचार आता है तो चेतना उसकी साक्षी मात्र होती है। देह में होने वाले स्पंदन और क्रियाएँ भी अनुभव में आती हैं, किंतु साक्षी भाव बना रहता है। जब विचार भी लुप्त हो जाएँ और देह का भान ही न रहे इसी अवस्था को समाधि कहते हैं। समाधि के अनुभव से सामान्य बुद्धि प्रज्ञा में बदल जाती है। मन में स्पष्टता और आनंद का अनुभव होता है।