१३ मार्च २०१८
प्रेम आत्मा का मूल स्वभाव है. सृष्टि के कण-कण में प्रेम किसी न
किसी रूप में ओत-प्रोत है. सूर्यमुखी का पौधा सदा सूर्य की ओर तकता है, चकोर
बादलों की ओर, पतंगे दीपक की तरफ लपकते हैं और भंवरे फूलों की तरफ....ये उदाहरण तो
हम सबने सुने-पढ़े और देखे हैं. एक नवजात शिशु का माँ के प्रति प्रेम सहज ही होता
है, क्योंकि नौ माह तक वह माँ के तन का ही हिस्सा था. जन्म के समय उसे लगता है, मानो
वह स्वयं से ही दूर हो गया. स्वयं से जुड़ने की इसी प्यास का नाम ही प्रेम है. इसे
पाने के लिए ही बालक पहले गुड़ियों से प्रेम करता है, फिर मित्रों व परिवार से और
जब यह तलाश फिर भी पूर्ण नहीं होती तो वह भगवान से प्रेम करता है. परमात्मा भी जब
तक अन्य पुरुष बना रहता है, वह अतृप्त रहता है. परमात्मा को उत्तम पुरुष के रूप
में अनुभव करके अर्थात स्वयं के रूप में अनुभव करने के बाद ही मानव की तलाश पूर्ण
होती है. जन्म के समय जो स्वयं से बिछड़ा था, आत्म रूप में उसे ही पाकर वह तृप्त हो
जाता है.
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