Wednesday, November 14, 2012

आखिर कहाँ हमें जाना है


अक्टूबर २००३ 
जिस क्षण कोई अपने सामने पहली दफा खड़ा हो जाता है, आमने-सामने..उसी क्षण वह सत्य को जान जाता है. उस क्षण उसके भीतर संसार से उठने, जगने और कामनाओं से मुक्त होने की क्षमता पूर्ण विकसित हो चुकी होती है. संतों की वाणी सुनकर हमारे भीतर अपनी वास्तविक स्थिति का बोध जगता है. धर्म के मूल में तीन बाते हैं, हम कहाँ से आये हैं, हम कहाँ हैं और कहाँ जाने वाले हैं? इनकी खोज ही हमें धर्म की ओर ले जाती है. हम उसी एक तत्व से आये हैं, उसी में हैं और उसी में लौट जाने वाले हैं. लेकिन लौटने से पूर्व हमें देखना है कि भीतर सुई की नोक के बराबर भी अहम् न बचे, उसका मार्ग बहुत संकरा है, अहम् मिटते ही सारा अस्तित्व हमारी सहायता को आ जाता है, आया ही हुआ है. भीतर से प्रेरणा मिलने लगती है और हम उसकी ओर बढते चले जाते हैं..जहां वह है वहाँ सभी ऐश्वर्य हैं, जगत कृपण है ईश्वर दाता है, वह जानता है हमारे लिए क्या उचित है और क्या नहीं, वह हितैषी है, अकारण दयालु है, वह ही तो है जिसने यह खेल रचा है.

4 comments:

  1. वाह ... बेहतरीन

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  2. "काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ"

    ....मयाने याने नशे में चूर, घमंड से परिपूर्ण

    सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहि जेहि संत

    "गर्व/घमण्ड का कोई स्थान नही ...

    सुन्दर रचना ......

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  3. सदा जी व सूर्यकान्त जी, स्वागतम व आभार !

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  4. सच कहा साक्षी भाव ही अपने से मिलाता है ।

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