फरवरी २००७
साक्षी होकर रहना ही ध्यान है, आत्मा द्रष्टा है, अज्ञान के कारण
वह स्वयं को कभी देह, कभी मन, कभी बुद्धि तथा कभी अहंकार मानता है और व्यर्थ ही
सुख-दुःख का भागी बनता है. यहाँ जो कुछ भी दिखाई देता है वह नष्ट होने वाला है.
यहाँ दो ही कृत्य हो रहे हैं - जो भी उत्पन्न होता है वह नष्ट हो जाता है.
अध्यात्म हमें वास्तविकता की ओर ले जाता है, वह हमें पाप-पुण्य दोनों से मुक्त
करता है. तब हम कर्ता नहीं रहते. जब हम कर्ता नहीं हैं तो कोई दूसरा भी कर्ता कैसे
हो सकता है. अतः किसी को दोषी देखना भूल ही है. व्यर्थ ही ऐसा करके हम अपने मन में
विचारों का बवंडर खड़ा कर लेते हैं, जबकि साधक का लक्ष्य तो स्वयं को इन विचारों से
मुक्त करना है. इस मार्ग पर चलना तलवार की धार पर चलने जैसा ही है, थोड़ी सी असावधानी
से हम अपने स्वरूप से हट जाते हैं, थोड़ी देर के लिए अपने शुद्ध स्वरूप को भूल जाते
हैं.
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